आइये पात्र परिचय कराया जाए..... क्या आपने लगान फ़िल्म देखी है? बस तो फिर आप बहुराष्ट्रीय कम्पनी में चल रही रायबहादुरी को समझ पाएँगे।
अंग्रेज़ जनरल: यह है ऑन-साइट का मैनेजर
राजा: यह है हमारा बिन पेंदे का लोटा यानी की डिलीवरी मैनेजर, इसके पास सिवाय राय देने के कोई और काम नहीं होता है सो आप इसे रायबहादुर कह सकते हैं
गाँव का मुखिया: यह निरीह सा असहाय सा प्राणी है, ऑफ़-साइट टीम याने कि हिन्दुस्तानी टीम का लीड, इसके पास अरमान तो बहुत होते हैं लेकिन अधिकार नहीं, इसे डिसीजन मेकिंग से तब तक अलग रखना होता हैं, जब तक वह रायबहादुरी न सीख ले।
अगर इतने क्रांतिकारियों के रहने के बावजूद भी अगर कोई कुछ कर ले जाए तो उसे आप भुवन कह सकते हैं। वैसे कोई कुछ नहीं उखाड़ पाता है क्योंकि असल में यह सिर्फ़ मजबूरी और मज़दूरी का काम भेजते हैं। इस चतुराई से अंग्रेज़ अपनी लोकल और हिंदुस्तानी दोनों टीम का विश्वासपात्र बनकर जेंटलमैन कहलाता है। हमारी भाषा में इसे राजनीति कहते है लेकिन कोरपोरेट दुनिया में इसे डिप्लोमेसी कहा जाता है।
चलिए आज की एक कहानी सुनते हैं: इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक से दीखते हैं लेकिन हैं नहीं, और इसका किसी भी ऑफ-साइट पर काम करने वाले जीवित और मृत व्यक्ति से बहुत गहरा सम्बन्ध है। अगर आपको कोई समानता लगती है तो इसे संयोग नहीं कहा जायेगा।
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नया नया प्रोजेक्ट आने वाला है, प्रोजेक्ट है कि चूहें कैसे पकड़े जाएँ। ऑफ़-शॉर टीम में सभी मैनेजर कुछ ज़्यादा ही उत्साह में हैं, उन्हें लग रहा है मानो कोई बहुत बड़ा तीर मारने का मौक़ा आ रहा है। मीटिंग पर मीटिंग हो रही है और न जाने क्या क्या हवाई क़िले बनाए जा रहे हैं। इसी चालूचपरम कम्पनी में एक नया नया टिंकू सा ट्रेनी बना कनफ़्यूज सा है, उसे समझ ही नहीं आ रहा कि चल क्या रहा है। वह बस अपने मैनेजर के आगे पीछे घूम रहा है और इस तमाशे में बेचारे की कोई सुन भी नहीं रहा है। मीटिंग पर मीटिंग और तभी अचानक से रायबहादुर टाइप डिलीवरी मैनेजर साहब ऑन-साइट से रिकवायरमेंट कलेक्ट करके आते हैं की आने वाले तीन दिनों में प्रोजेक्ट आउट्लुक बनाना है और हैंड-ओवर लेना है। उधर लंदन ऑफ़िस में बवाल मचा हुआ है क्योंकि नौकरी छिन रही है, और उनकी मांग है कि कम से कम लंदन के चूहे पकड़ने का काम तो उनसे न छीना जाए लेकिन मैनेजमेंट का दबाव है कि अब हर काम लो-कॉस्ट सेंटर में जा रहा है सो अब भारत वाले ही सारे चूहे पकड़ेंगे। लन्दन के अंग्रेज मारे दुःख में अकुलाये जा रहे थे और वहां बैठे हुए कुछ अंग्रेज़ टाइप के देसी बुद्धिजीवी आग में घी का काम किए दे रहे हैं। बहरहाल ऑन-बोर्डिंग हुई, बाकायदा देसी मैनेजरों ने अंग्रेजों से चूहे पकड़ने का तरीका सीखा और उसका घनघोर तरीके से डॉक्यूमेंटेशन किया। प्रोजेक्ट, डमी चूहे को पकड़कर टेस्टिंग और फिर पायलट मोड पर पास हो गया और फिर हिन्दुस्तानियों को हैण्ड-ओवर दे दिया गया। अब पूरे छ महीने की ऑनबोर्डिंग के बाद चूहे पकड़ने की पूरी ज़िम्मेदारी भारतीयों को दे दी गयी।
हैण्ड-ओवर देने वाले अंग्रेजों और रायबहादुर देसियों ने खुद पर डिपेंडेंसी बनाये रखने के लिए चूहे को खरगोश बताकर और बाकी सब कुछ की भी आधी अधूरी जानकारी बतायी और मामला अजहरुद्दीन जैसा बनकर भी लाइव हो गया। इस इंडस्ट्री में एक और टर्म बड़ी लोकप्रिय है उसे कहते हैं "सर्विस लेवल एग्रीमेंट", इसके मुताबिक़ तय हुआ की हिन्दुस्तानी एक चूहा पकड़ने में पांच मिनट लगाएंगे। प्रोजेक्ट लाइव हुआ और हिन्दुस्तान में बैठे निरपराध, निसहाय गरीब लोग एक्को चूहा नहीं पकड़ पाये। अपने रायबहादुर राजा साहब याने की डिलिवरी मैनेजर की ऑन-साइट पर क्लास लगी और फिर उन्होंने प्रोजेक्ट रिव्यु कमिटी बैठाई, उसने पूरे डॉक्यूमेंटेशन वेरीफाई किये और सब कुछ दुरुस्त पाया। फिर से पायलट टेस्ट किया और फिर से डम्मी चूहा (खरगोश) पकड़ाने की टेस्टिंग हुई।
प्रोजेक्ट लाइव लेकिन मामला फिर फेल, उधर चूहों की संख्या बढ़ती जा रही थी और सारा दोष हिन्दुस्तानी टीम पर मढ़ा जा रहा है। राजा साहब की रोज क्लास लग रही है और भारत में अभी भी मामला विचाराधीन है, रोज राजा साहब अपने मुखिया जी की क्लास ले रहे हैं और मुखिया जी रोज नई टीम बनाये जा रहे हैं, उधर चूहों की संख्या बढ़ती जा रही है और अब चूहे पकड़ने की जगह उन्हें पका के खा जाने वाले चीनियों को प्रोजेक्ट देने की बहस शुरू हो गयी है।